मित्रता दिवस विशेष : नजरिये की बात है जनाब, कोई कर्ण से पूछे दुर्योधन कैसा था!
कर्ण और दुर्योधन की मित्रता की कहानी महाभारत की एक मुख्य कड़ी है
दोस्ती एक ऐसा रिश्ता हैं जो हमको जन्म से नहीं मिलता. ये वो रिश्ता हैं जिसको हम बचपन से खुद चुनते हैं और जिंदगीभर निभाते हैं. दोस्तों की हर किसी के लाइफ में एक अलग जगह होती है. कितना भी कोई बिजी हो जाए पर समय होते ही हम दोस्त से मिलने जरूर जाते हैं. और क्यों न जाएं दोस्त के बिना जिंदगी बोरिंग सी जो लगने लगती है….
दोस्ती को लेकर सभी का अलग-अलग नजरिया है. कहते हैं दोस्ती में ”जो तेरा है, वो मेरा है और जो मेरा है वो तेरा…” की तर्ज पर रिश्ता निभाया जाता है. हमेशा ही दोस्त बिना वजह नहीं बनते. कभी-कभी हम दोस्त भी किसी वजह से चुनते हैं. इसके बाद जब हम दोस्त बन जाते हैं तब इस दोस्ती को हमेशा निभाते हैं.
वैसे तो ऐसे कई लोग हैं जिनकी दोस्ती की मिसाल हम सभी को देते होंगे. लेकिन आज फ्रेंडशिप-डे के मौके में ऐसे दोस्तों के बारे में जानते हैं जिसको आपने भले ही नेगेटिव करैक्टर में देखा होगा लेकिन एक दोस्त की नज़र से वो इस दुनिया का सबसे अच्छा इंसान हैं. ये दोस्त महाभारत के दिलचस्प पात्र कर्ण और दुर्योधन हैं. जिनकी दोस्ती केवल ज़रूरत के लिए शुरू हुई और सबसे सफल कहानी में से एक में समाप्त हो गयी.
दो दोस्त… कर्ण और दुर्योधन
कर्ण- कर्ण एक ऐसे योद्धा थे जो जन्मजात प्रतिभाशाली थे. कर्ण दान करने के लिए काफी प्रसिद्ध थे. कर्ण ऊर्जा से परिपूर्ण और हमेशा सही रास्ते, सही दिशा में जाने वाले व्यक्ति थे. कहते हैं कर्ण जन्म से ही एक सही शिक्षक की तलाश में थे, लेकिन अपनी जन्म पृष्ठभूमि के कारण उसे सिर्फ शिक्षा के अधिकार से इनकार कर दिया गया था. जिसके कारण अंत में वो गलत दिशा में चले गए थे.
दुर्योधन- दुर्योधन एक अति महत्वाकांक्षी योद्धा था. दुर्योधन के पिता के महाराज होने के कारण वह जन्म से ही राजा बनने की महत्वाकांक्षा रखता था. और बचपन से ही भविष्य में बनने वाले राजा के स्वप्न का पीछा करता था. लेकिन फिर अचानक से एक दिन पांच अन्य राजकुमारों ने भी सिंहासन पर उनका दावा लगाया और तब से ये प्रतियोगिता शुरू हुई. दुर्योधन में भक्ति और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता कम थी.
ऐसे हुई कर्ण और दुर्योधन के बीच दोस्ती की शुरुआत
कहते हैं दोस्त बनाने के पीछे भी हम कोई न कोई कारण जरूर देखते हैं. बिना कारण के सिर्फ बचपन में ही हमारी दोस्ती हो सकती हैं. उसके बाद अक्सर दोस्त बनाने के पीछे कोई कारण ही होता है. कर्ण और दुर्योधन के बीच दोस्ती भी एक कारण के साथ ही शुरू हुई. दुर्योधन के अंदर बचपन से ही राजा बनने की जबरदस्त महत्वाकांक्षा थी. वो अपने इस लक्ष्य को लेकर आगे ही बढ़ रहा था कि अर्जुन उसके इस लक्ष्य के आगे आ गया. अब दुर्योधन को किसी ऐसे योद्धा की ज़रूरत थी जो अर्जुन को हरा सके और कर्ण एक ऐसा योद्धा था जो अर्जुन का सामना कर सकता था, जो अर्जुन की क्षमताओं से मेल खा सकता था. कर्ण दुर्योधन के आश्रय में रहता था. एक बार गुरु द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की शिक्षा पूर्ण होने पर हस्तिनापुर में एक रंगभूमि का आयोजन करवाया. रंगभूमि में अर्जुन विशेष धनुर्विद्या युक्त शिष्य प्रमाणित हुआ. तभी कर्ण रंगभूमी में आया और अर्जुन द्वारा किये गए करतबों को पार करके उसे द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकारा.
तब गुरु कृपाचार्य ने कर्ण के द्वंद्वयुद्ध को अस्वीकृत कर दिया और उसके परिवार और वंश के बारे में पूछा. द्वंद्वयुद्ध के नियमों के हिसाब से केवल एक राजकुमार ही अर्जुन को द्वंद्वयुद्ध के लिए चुनौती दे सकता था. दुर्योधन ने तुरंत मौके का फायदा उठाते हुए कर्ण को अंग देश का राजा बनाकर सम्मान दिया. जिससे वह अर्जुन से द्वंदयुद्ध के योग्य हो जाए. जब कर्ण ने दुर्योधन से पूछा कि वह उससे इसके बदले में क्या चाहता है, तब दुर्योधन ने कहा की वह केवल यही चाहता है कि कर्ण उसका मित्र बन जाए. इस घटना के बाद महाभारत के कुछ मुख्य पात्र दुर्योधन और कर्ण के बीच नए संबंध की शुरूआत हुई.
दुर्योधन के विवाह में किया कर्ण ने युद्ध:
चित्रांगद की राजकुमारी से विवाह करने में भी कर्ण ने दुर्योधन की सहायता की थी. राजकुमारी ने स्वयंवर में दुर्योधन को अस्वीकार कर दिया था और तब दुर्योधन उसे बलपूर्वक उठाकर ले गया. वहाँ आए सभी राजाओं ने उसका पीछा किया, लेकिन कर्ण ने अकेले ही उन सबको परास्त कर दिया. परास्त राजाओं में जरासंध, शिशुपाल, दन्तवक्र, साल्व, और रुक्मी भी थे. कर्ण की प्रशंसा स्वरूप जरसंध ने कर्ण को मगध का एक भाग दे दिया था. भीम ने बाद में श्रीकृष्ण की सहायता से जरासंध को परास्त किया, लेकिन उससे बहुत पहले ही कर्ण ने उसे अकेले परास्त किया था. कर्ण ही ने जरासंध की इस दुर्बलता को उजागर किया था कि उसकी मृत्यु केवल उसके धड़ को पैरों से चीरकर दो टुकड़ो मे बाँट कर ही हो सकती है.
दुर्योधन का कर्ण पर अटूट विश्वास
कर्ण और दुर्योधन की दोस्ती में एक विश्वास था. एक बार कर्ण और दुर्योधन की पत्नी दोनों शतरंज खेल रहे थे. इस खेल में कर्ण जीत रहा था तभी भानुमति ने दुर्योधन को आते देखा और खड़े होने की कोशिश की. दुर्योधन के आने के बारे में कर्ण को पता नहीं था. इसलिए जैसे ही भानुमति ने उठने की कोशिश की कर्ण ने उसे पकड़ना चाहा. भानुमति के बदले उसके मोतियों की माला उसके हाथ में आ गई और वह टूट गई. दुर्योधन तब तक कमरे में आ चुका था. दुर्योधन को देख कर भानुमति और कर्ण दोनों डर गए कि दुर्योधन को कहीं कुछ गलत शक ना हो जाए. मगर दुर्योधन को कर्ण पर काफी विश्वास था. उसने सिर्फ इतना कहा कि मोतियों को उठा लें और जिस बात के लिए वो कर्ण के पास आया था वह करने लगा.
एक दोस्त का काम होता है दूसरे दोस्त की अच्छाई से सीखना और बुराइयों को उससे दूर करना. कर्ण शुरू से ही महाभारत युद्ध के खिलाफ था लेकिन दोस्ती के कारण उसने युद्धभूमि में अपने दोस्त को अकेले नहीं छोड़ा और साथ दिया. सबकी नज़र में भले ही दुर्योधन गलत था लेकिन एक दोस्त (कर्ण) की नज़र में वह सबसे ऊपर था. वहीं दुर्योधन ने अपने दोस्त कर्ण के लिए अपने परिवार के खिलाफ हो गए थे. महाभारत में कर्ण और दुर्योधन की दोस्ती भले ही किसी वजह से शुरू हुई हो लेकिन इन दोनों में दोस्ती की भावना सच्ची थी, जो अंत में सफल कहानी के रूप में समाप्त हुई.