अब हम 21वीं शताब्दी में जी रहे हैं. आज साइंस ने इतनी तरक्की की है कि लोग चाँद पर भी जमीन खरीदने की योजना बनाने में लगे हैं. इतना ही नहीं हमारा एजुकेशन सिस्टम, टेक्नोलॉजी, बेटियों की सुरक्षा का मामला, किसान और बेरोजगारों के लिए योजनाएं, भारत का आर्थिक विकास सभी पर बराबरी से ध्यान दिया जा रहा है. इतनी बड़ी-बड़ी सोच के बीच आज भी भारतीय समाज इस छोटे से मुद्दे जातिवाद पर अटका हुआ है. ये बहुत शर्म की बात है कि इतनी कुंठित प्रथा के साथ लोग आज भी जी रहे हैं.
जातिवाद और रंगभेद का जहर घरों से होकर स्कूल, कॉलेज, ऑफिस और अब तो लोगों की जिंदगियों में घुलने लगा है. दरअसल मामला पूरा स्वीकार करने के ऊपर है. जातिवाद को लेकर हमारी सोच हम पर पूरी तरह हावी हो गयी है जिसको निकालना असंभव सा लगने लगा है. एक ओर हम सोच रहे हैं की सभी वर्ग को सामान अधिकार मिलना चाहिए दूसरी ओर हम खुद निचले तबके और दूसरी जाति के लोगों को स्वीकार नहीं कर पाए है. और अपनी हरकतों से उनकी औकात याद दिला देने में भी पीछे नहीं हटे है.
अबतक मेरा सोचना यही था कि गरीब और निचले तबके के लोग इस जातिवाद को अपना सबसे बड़ा हथियार बनाए हुए हैं, लेकिन जाति, छुआछूत और भेदभाव के चक्रव्यूह में फंसे ज्यादातर उच्च वर्ग के भारतीय लोग की सोच को देखकर मुझे मेरी सोच गलत लगने लगी है. आज भी हमारे ही घरों में जातिवाद को लेकर इतने सारे उदाहरण है जो इस प्रथा को खत्म नहीं होने दे रहे हैं.
बच्चों को ये कैसी सीख:
घर को बच्चे का पहला स्कूल कहा जाता है और मां को बच्चे की पहली टीचर. राधिका अपने बच्चों को खूब अच्छी शिक्षा देतीं हैं. वो अपने बच्चों के अंदर अमीर-गरीब जैसे भेदभाव की सोच नहीं पनपने देना चाहती. बच्चे को एक ओर दुकानदार, कामवालों से अच्छे से बातचीत करना सिखाती हैं दूसरी ओर उसे दूसरी सोसाइटी के गरीब बच्चों के साथ खेलने से मना करती है. उन्हें डर्टी बॉय, गर्ल कहकर अपने बच्चों को दूर रहने की सलाह देतीं हैं. ये तो हुई घर की बात पर एक शिक्षक से इस तरह की उम्मीद नहीं की जा सकती होगी. अक्सर छोटे शहरों और गाँवों में हमने देखा है मिड डे मील के वक्त दलित स्टूडेंट्स को अलग बर्तन में भोजन दिया जाता है. ऐसे नियम बनाकर हम उन्हें अपने समान होने का संदेश तो नहीं ही देते हैं.
मैं इस बात से हैरान हूं की बच्चों के अंदर भी ऐसी ही सोच विकसित हो रही हैं. कुछ समय से मैं एक एनजीओ के साथ जुड़ी हूं. मुझे आज भी याद है वो कांटे की तरह चुभने वाला नजारा मुझे जो शिवली गांव के स्कूल में देखने को मिला. जहां पर बच्चे ये गाना गाकर एक दूसरे को चिढ़ाते थे, ‘एक वाला एक्का, दो वाला दुल्हिन, तीन वाला तेली, चार वाला चमार और पांच वाला पंडित.’ सबसे ज्यादा कक्षा चार में पढ़ने वालों को सब चिढ़ाते थे. कक्षा पांचवाले पंडित उन्हें इस अंदाज में बुलाते थे कि मुझे हैरानी होती थी. जातिवाद का ऐसा जहर मैंने पहले नहीं देखा था.
इंटरकास्ट मैरिज में ऑनर किलिंग का डर:
शादी एक ऐसा फैसला है जिसमें लड़का-लड़की के साथ ही घरवालों की रजामंदी भी होनी जरूरी हैं पर इसमें समाज भी बहुत बड़ी भूमिका रखता है. शादी अगर फॅमिली की पसंद से हैं तो सब अच्छा हैं और कहीं खुद की पसंद हैं और वो भी अपनी जाति के बाहर तो सारी मुसीबत खड़ी हो जाती है. कहीं-कहीं माता पिता को मनाना आसान होता है तो कहीं सैराट फिल्म जैसे भी माता-पिता होते हैं.
आज भी भारत में ऐसी बहुत सी जगह हैं जहां अंतर जातीय विवाह मना है. सही नज़रिये से अगर हम देखें तो एक लड़का और लड़की जिस चीज में खुश हैं तो वही मिलना चाहिए न की उन्हें बिना मतलब के रिश्तों में बांधना चाहिए.
पुराने समय में लोग अपने पड़ोसियों, रिश्तेदारों और समाज के लोगों के पुराने ख्यालातों की वजह से डरते थे और अपने बच्चों को अपने जाति के अंदर ही शादी करवाते थे. आज भी लोगों का यही सोचना है लव मैरिज से हमें कोई परेशानी नहीं है लेकिन अपनी जाति में होनी चाहिए. ऐसा न हुआ तो लोगों ने आजकल नई प्रथा चला दी हैं जिसको ऑनर किलिंग न नाम दिया गया है.
रोग भी जातिवाद का शिकार:
अब आप ये सोच रहे होंगे की रोग कैसे जातिवाद का शिकार हो सकता है. ये उदाहरण भी हमको हमारे घरों में देखने को मिल जाएगा. घर में अगर कामवाली बाई को चर्मविकार यानी स्किन प्रॉब्लम है तो उसको अजीब सी नज़रों से देखा जाएगा. उसको कुछ खाने को भी दूर से देंगे. बच्चों को भी दूर रखेंगे और इतना ही नहीं
उसको नौकरी से भी हटा देगें. लेकिन अगर यूएस वाली चाची घर रहने आती हैं जिनको भी यही बिमारी हैं उसकी आव भगत में कोई कमी नहीं रहेगी. उल्टा आप उन्हें दो तीन डॉक्टर के नाम भी बता देंगे. नौकरानी की बिमारी सफेद दाग है और यूएस वाली चाचीजी की बिमारी स्किन प्रॉब्लम है.
मुझे लड़का पसंद लेकिन उसकी जात नहीं:
पुराने जमाने के लोग अगर ऐसा करे तो कोई नई बात नहीं लगती पर जब आज का यूथ इस बात को फॉलो करता है तो ये देख हैरानी होती है. अब एक किस्सा ये ही ले लीजिए – आईआईटी से पीएचडी करने वाली सिमरन (नाम बहल दिया गया है) को अपनी क्लास के एक लड़के से प्यार हो जाता है और दोनों शादी करने के लिए तैयार होते हैं. सिमरन का ये प्यार उसकी जाति का नहीं है. घरवालों को तो मना लिया लेकिन समाज को कैसे मनाए. अब सिमरन ने शादी करना तय कर लिया था तो शादी के कार्ड से ही अपने होने वाले पति का सरनेम हटा दिया. इतना ही नहीं सोशल साइट्स पर भी अपने पति के सरनेम की जगह लेटेस्ट फैशन का नाम देकर शुरुआत का पहला अक्षर लिखवा दिया.
लोगों के बीच समझ बढ़ाने की हैं जरुरत:
मेरे हिसाब से इंटरकास्ट मैरिज हो, कामवाली का रोग हो या फिर बच्चों के बीच ऊची-नीची जात की बात हो… हमें अपनी सोच बदलनी होगी. ये बात लोगों को समझना होगा की जातिवाद को ना फैलाएं. भगवान, ईश्वर, अल्लाह सब एक हैं. इंटरकास्ट मैरिज ने कुछ वर्षों में लोगों के मन में बदलाव लाया है. आज के दिन में लगभग 40-50% लोगों ने इंटरकास्ट मैरिज को अपना लिया है और अपनी इच्छा के अनुसार विवाह भी अलग-अलग जातियों के बीच करने लगे हैं. लेकिन वहीँ पिछले कुछ सालों से ऑनर किलिंग के केस भी बहुत बढ़ गए हैं. ये 21वीं शताब्दी है, भारत आज सभी पक्ष में आगे बढ़ रहा है. तो हमारा फर्ज हैं की इस मानसिकता को हम यहीं छोड़ आगे बढ़े और अपनी सोच को और बढ़ाए.